इन घटनाओं को सिंधु जल संधि की पृष्ठभूमि में देखने की आवश्यकता है। 1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच वर्ल्ड बैंक की मध्यस्थता से बनी यह संधि दुनिया की सबसे सफल जल समझौतों में से एक मानी जाती रही है। लेकिन बदलते राजनीतिक समीकरण और सीमापार तनाव के चलते अब इस संधि की स्थिरता पर सवाल उठ रहे हैं।
क्या यह सिर्फ एक राजनयिक प्रतिक्रिया है या इसके पीछे कुछ और है?
पाकिस्तान के हालिया निर्णय केवल कूटनीतिक कदम नहीं लगते। इनका उद्देश्य भारत पर राजनीतिक दबाव बनाना भी हो सकता है, खासकर ऐसे समय में जब भारत ने भी यह संकेत दिए हैं कि संधि की समीक्षा हो सकती है।
यह सवाल अब बार-बार उठ रहा है: क्या सिंधु जल संधि अब भी अपने मूल उद्देश्य को पूरा कर रही है? या यह समय के साथ अप्रासंगिक हो चुकी है?
सोचने की बात यह है कि...
क्या दोनों देश अपने जल संसाधनों को लेकर किसी नई वास्तविकता की ओर बढ़ रहे हैं?
क्या इस संधि का भविष्य क्षेत्रीय शांति और सहयोग की कुंजी है या अब यह एक पुराने दौर की निशानी बन चुकी है?
क्या इस बार दोनों देशों के बीच टकराव सिर्फ बयानबाज़ी तक सीमित रहेगा या यह वाकई किसी बड़े बदलाव की भूमिका है?
निष्कर्ष
सिंधु जल संधि पर फिर से विचार करने की आवाज़ें अब तेज़ हो रही हैं—दोनों तरफ से। ऐसे में जरूरी है कि हम बतौर नागरिक इस विषय को केवल एक और ‘भारत-पाक विवाद’ की तरह न देखें, बल्कि इसकी गहराई को समझें। पानी सिर्फ एक प्राकृतिक संसाधन नहीं, बल्कि भविष्य का रणनीतिक हथियार भी हो सकता है।
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